मां विंध्यवासिनी मंदिर में बावली का रहस्य, 36 साल बाद भक्तों के लिए खोलने की तैयारी
धमतरी की मां विंध्यवासिनी देवी मंदिर में भक्तों के लिए प्राचीन बावली को खोला जा रहा है.आईए जानते हैं इस बावली का महत्व क्या है.

धमतरी : छत्तीसगढ़ का धमतरी जिला अपने गौरवपूर्ण इतिहास के लिए जाना जाता है.यहां पर कई ऐतिहासिक स्थल हैं.उन्हीं में से एक है माता विंध्यवासिनी मंदिर.जिसे यहां के लोग बिलाई माता के नाम से जानते हैं. साल 2024 में लगभग 35 साल बाद मां विध्यवासिनी मां ने अपना चोला छोड़ा था. जिसके बाद माता नए स्वरूप में भक्तों को दर्शन दे रही हैं. वहीं मंदिर समिति ने पूरे मंदिर प्रांगण का कायाकल्प करवाया.जिसके बाद ये और भी ज्यादा आकर्षक लगने लगा.वहीं अब मंदिर समिति इस मंदिर की खोई हुई पहचान को भक्तों के लिए वापस लाने का प्रयास शुरु किया है.ये खोई हुई पहचान मंदिर प्रांगण में मौजूद प्राचीन बावली है.जिसे 36 साल पहले निर्माण कार्य के मद्देनजर बंद कर दिया गया था.लेकिन अब मंदिर समिति ने इस बावली को साफ करके दोबारा भक्तों के लिए खोलने का निर्णय लिया है.
36 साल बाद भक्तों के लिए खोलने की तैयारी : धमतरी की आराध्य देवी मां विंध्यवासिनी देवी मंदिर के बंद पड़े बावली को 36 साल बाद सफाई के लिए खोला गया है. अब इसे श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए सुसज्जित किया जाएगा. मां विंध्यवासिनी ट्रस्ट के अध्यक्ष आनंद पवार ने बताया कि मंदिर परिसर में पुरानी बावली है. जो 36 वर्षों से बंद थी. बावली का महत्व सनातन धर्म में एक तीर्थ के रूप में है. ऐतिहासिक मंदिरों में बावलियों में ज्योति कलश और पूजा सामग्री को विसर्जित किया जाता था. साथ ही साथ उत्तर पूर्व जल क्षेत्र की बावली का एक अलग महत्व है,जिसके दर्शन मात्र से लोगों का कल्याण होता है.अन्य क्षेत्रों के मंदिर परिसर में भी बावली अभी भी है.
बावली का विशेष महत्व : वहीं पंडित नारायण दुबे ने बताया कि प्राचीन समय में बावली बनाया जाता था. बावली सीढ़ी नुमा कुंआ है, इसे प्राचीन समय में हर मंदिरों में बनवाया जाता था. जिससे वहां के सेवक पुजारी बावली में उतरकर जल लाकर देवी का स्नान कराते थे. जो जल बचता था उसी जल को चरणामृत के रूप में श्रद्धालुओं को दिया जाता था. यह बावली का विशेष महत्व है.
बिल्ली से जुड़ी माता की कहानी : माता विंध्यवासिनी को लेकर कई जनश्रुति है.लेकिन सबसे ज्यादा जो जनश्रुति प्रचलित है वो बिल्लियों से जुड़ी है. प्राचीन समय में धमतरी में गोड़ नरेश धुरूवा का राज था. आज जहां देवी का मंदिर है, वहां कभी घना जंगल था. जंगल भ्रमण के दौरान एक स्थान पर आकर राजा के घोड़े रुक गए. जब राजा ने आसपास खोजबीन की तो उन्हें दो जंगली बिल्लियां दिखी,जो एक काले पत्थर के आजू बाजू बैठी थी.ये बिल्लियां काफी डरावनी थी. राजा के आदेश पर तत्काल बिल्लियों को भगाकर पत्थर को निकालने का प्रयास किया गया, लेकिन पत्थर बाहर आने की बजाय वहां से जल धारा फूट पड़ी.इसके बाद राजा ने काम बंद करवा दिया.
राजा को आया स्वप्न : इसके बाद राजा को स्वप्न आया.जिसमें देवी ने उन्हें दर्शन दिए. राजा से देवी ने कहा कि उन्हें जमीन के अंदर से निकालने का प्रयास व्यर्थ है.उसी स्थान पर पूजा अर्चना की जाए. राजा ने दूसरे दिन उसी जगह पर देवी की स्थापना करवा दी.आगे चलकर राजा ने देवी स्थान पर मंदिर बनवाया. मंदिर बनने के बाद देवी उठी और आज की स्थिति में आ गईं.ये मूर्ति आज भी प्रत्यक्ष प्रमाण देती है.क्योंकि पहले जिस ओर दरवाजा है उधर देवी का मुख था.लेकिन कालांतर में जब देवी पूरी तरह से बाहर आईं तो चेहरा द्वार से थोड़ा तिरछा हो गया. मूर्ति का पाषाण एकदम काला था. मां विंध्यवासिनी देवी की मूर्ति भी काली थी.उन्हें विंध्यवासिनी देवी और छत्तीसगढ़ी में बिलाई माता कहा जाने लगा. इस मंदिर को प्रदेश की 5 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है.